देश में दवाओं की आसमान छूती कीमतें मरीजों की जान के साथ-साथ उनकी जेब पर भी भारी पड़ रही हैं। चौंकाने वाला खुलासा हुआ है कि दवाओं की कीमतें सरकार नहीं, बल्कि डॉक्टर और दवा कंपनियां मिलकर तय कर रही हैं। इस ‘कपट जाल’ में ₹38 की मामूली दवा की MRP ₹1200 तक रखी जा रही है। यह सिर्फ एक उदाहरण है, ऐसा खेल तमाम दवाओं के साथ चल रहा है। इस गोरखधंधे के पीछे डॉक्टरों द्वारा अपने मुताबिक ब्रांड बनवाकर उनकी मनमानी कीमत तय करवाना मुख्य कारण है।
विशेषज्ञों का मानना है कि पिछले 20 सालों में देश का दवा कारोबार ₹40 हज़ार करोड़ से बढ़कर ₹2 लाख करोड़ के पार पहुँच गया है। इसका एक बड़ा कारण दवाओं की MRP में होने वाले बड़े पैमाने पर हेरफेर को माना जा रहा है। एक समय था जब अगर दवा की MRP ₹1200 होती थी, तो डीलर को वह ₹600 में मिलती थी, जिससे रिटेलर को अच्छा मुनाफा होता था। लेकिन अब डॉक्टर अपने हिसाब से ही दवाओं की MRP तय करवा रहे हैं, जबकि नियमों के मुताबिक दवाओं के रेट तय करने का अधिकार सिर्फ दवा बनाने वाली कंपनियों को है। दवाओं के रेट तय करने में कई कारक शामिल होते हैं, लेकिन डॉक्टरों और कंपनियों की मिलीभगत से मरीजों का शोषण हो रहा है।
ब्रांडेड बनाम जेनेरिक: बड़ी छूट का खेल
ब्रांडेड दवाओं पर रिटेलर ज़्यादा से ज़्यादा 20-25 प्रतिशत तक की छूट देते हैं। वहीं, जेनेरिक दवाओं पर 50-70 प्रतिशत तक की छूट मिलती है, क्योंकि जेनेरिक दवाएं सस्ती होती हैं और उन्हें महंगी जांचों से नहीं गुज़रना पड़ता। विशेषज्ञों का सुझाव है कि दवा खरीदते समय, दवा के रैपर पर क्यूआर कोड होना चाहिए। यह क्यूआर कोड दवा का नाम, ब्रांड का नाम, निर्माता की जानकारी, निर्माण की तारीख और एक्सपायरी की तारीख बताता है। दवाओं या उनके अवयवों के बारे में अधिक जानकारी के लिए डॉक्टर या फार्मासिस्ट से सलाह ली जा सकती है।
हालांकि, जो दवाएं सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं, उनकी गुणवत्ता और MRP की निगरानी के लिए भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइस अथॉरिटी (NPPA) काम करती है। सरकार ड्रग्स प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (DPCO) के माध्यम से दवा की MRP पर नियंत्रण रखती है। आवश्यक और जीवन रक्षक दवाओं के लिए अधिकतम मूल्य निर्धारित करने के साथ-साथ DPCO की जिम्मेदारी मरीजों के लिए दवाएं सस्ती और सुलभ कराने की भी है।
नियम तोड़कर कीमतें बढ़ा रहीं कंपनियां
सरकार जिन दवाओं को DPCO के दायरे में लाती है, उनकी MRP तो नियंत्रित होती है, लेकिन सैकड़ों फॉर्मूले की दवाएं आज भी सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं। इन दवाओं की MRP में मनमानी चल रही है। दवाओं की कीमतों में बढ़ोतरी को लेकर सरकार की गाइडलाइन है कि एक साल में अधिकतम 10 प्रतिशत ही MRP बढ़ाई जा सकती है। लेकिन चालाक कंपनियां इस नियम को धता बताकर नए प्रोडक्ट्स का नाम बदलकर या अलग डिवीजन और ब्रांड बनाकर हर साल डॉक्टरों की ‘डिमांड’ वाली MRP तय कर देती हैं।
फार्मा फैक्ट्रियों से ही देश में दवाएं सप्लाई की जाती हैं। कंपनियों और डॉक्टरों के इस खेल में कंपनियां अपने मुनाफे के लिए नियमों को ताक पर रखकर डॉक्टरों के हिसाब से न सिर्फ़ दवाएं बनाने को तैयार हो जाती हैं, बल्कि मनमानी कीमत भी तय कर देती हैं। यही नहीं, इन कंपनियों से तो मोबाइल पर ही ‘डील’ हो जाती है। यही वजह है कि देश भर में डॉक्टर और अस्पताल खुद अपनी दवाएं बनवा रहे हैं और मनमानी कीमत पर बेच रहे हैं। डॉक्टर और अस्पताल माइक्रो पायलट का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे दवा की एक्सपायरी निर्धारित होती है। अगर दवा में माइक्रो पायलट की गुणवत्ता थोड़ी कम कर दी जाए तो कंपनियों का मार्जिन बढ़ जाता है, लेकिन दवा की एक्सपायरी का समय कम हो जाता है। इसके पीछे कारण यह है कि सामग्री और एक्सपायरी को लेकर सरकार की कोई खास गाइडलाइन नहीं है। एक्सपायरी की तारीख भी कंपनियां ही तय करती हैं। सरकार के नियंत्रण में जो दवाएं हैं, उन्हें लेकर थोड़ी सख्ती ज़रूर है, लेकिन बाकी दवाओं पर कोई खास निगरानी नहीं है।
यह एक गंभीर विषय है कि दवा का निर्माण, आयात या बिक्री करने वाली कंपनियां ही मनमाने ढंग से दवा की कीमतें निर्धारित करती हैं।
क्या है समाधान?
नियमों में स्पष्ट कहा गया है कि केवल प्रिस्क्रिप्शन वाली दवाएं और ओवर-द-काउंटर (OTC) दवाएं जो केवल फार्मेसियों में बेची जा सकती हैं, उन्हें सभी फार्मेसियों में बिल्कुल एक ही कीमत पर बेचा जाना चाहिए। इसलिए, इन दवाओं की कीमतें फार्मेसियों के बीच भिन्न नहीं होती हैं, जिसका अर्थ है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप अपना प्रिस्क्रिप्शन खरीदने के लिए किस फार्मेसी को चुनते हैं। सरकार को चाहिए कि वह दवा बनाने वाली कंपनियों पर यह नियम सख्ती से लागू करे कि वे हर सॉल्ट का मूल्य भारत सरकार के नियमानुसार एक जैसा निर्धारित करें, चाहे ब्रांड कोई भी हो। मूल्य ब्रांड पर न होकर सॉल्ट पर हो ताकि डॉक्टरों और कंपनियों के इस ‘काले धंधे’ पर लगाम लगे और मरीज को ₹300 का इंजेक्शन ₹12 हज़ार में न खरीदना पड़े।
हर्बल दवाइयों और उन ओवर-द-काउंटर (OTC) दवाइयों की कीमतें जिनमें बदलाव की अनुमति सरकार से हो, जो फार्मेसी के अलावा अन्य दुकानों, जैसे सुपरमार्केट और कियोस्क में बेची जा सकती हैं, वे कीमतें पूरी तरह से स्टोर द्वारा निर्धारित की जाती हैं, इसलिए आपको एक स्टोर से दूसरे स्टोर में कीमतों में अंतर का अनुभव होता है।
इस पूरे मामले पर सरकार को तत्काल ध्यान देने और सख्त कदम उठाने की जरूरत है ताकि मरीजों को महंगी दवाओं के ‘कपट जाल’ से बचाया जा सके।